खुशियों के लम्हें

 क्या वह हर मोड़ दर्द भरा था?

क्या वे हर पल आंखें नम थी?

क्या उन लम्हों में कोई खशुी नहीं थी?

या खुशी होकर भी, मुस्कुराहट नहीं थी?

 थे वे पल कुछ इस तरह के,

 जो शायद समझाएँ नहीं जा सकते।

थे वे पल कुछ इस तरह के , की कोई बेचैनी सी अनुभव कर सकते थे।

वे पल, कुछ इस तरह के,

की ना जाने सब होकर भी,

कुछ कमी थी;

के खुशियों में लिपटे शायद हो सकते थे दिन,

पर उन खुशियों की ना तलाश थी, ना जरूरत थी;

 वह खुशियां ही क्या,

 जो हँसी ना लाए?

 वह हंसी ही क्या,

 जो खुद को ना भाए?

 जब खुद को ना भाए,

 तो औरो का क्या सोचा जाए?

 खुद खुश हो जाए तो दुनिया खुश नजर आती है !

हाँ, खुद खुश हो जाए, तो दुनिया खुश नजर आती है !!!!!

 क्या दर्द में खुशी नहीं होती?

 क्या दर्द में मुस्कान नहीं होती?

 सोचो ना एक बार और,

 जी लो उन लम्हों को, जब आंखें नम हो,

 जी लो उन लम्हों को, जब खुशियों की चाह कम हो,

 फिर ना जाने कब खुशियों का संगम हो;

 हां, हो सकता है, की तुम भूल जाओ उस बीते गम को;

 भूल जाओ तुम उस बीते गम को ।।।

About the author

Shashank Shekhar

Shashank Shekhar is a 2nd-year student pursuing Electronics and Communication Engineering in NIT Jamshedpur. He believes that the Pensieve of thoughts is the source of his energy, and the pen is the tool for harnessing it and write efficiently.

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